आपे लाइओ अपना पिआरु।
सदा सदा तिसु गुर कउ करी नमसकारु॥

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यह प्रसंग 1941 का है। पिताजी के साथ मैं बाबा नंद सिंह जी महाराज के दर्शनों के लिए उन के ठाठ (कुटीर) पर गया। जब पिताजी सन् 1937 में शहंशाह की ताजपोशी के समारोह में सरकार की ओर से पंजाब पुलिस का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजे गए थे। वहाँ से वे बच्चों के लिए कुछ चीजें लाए थे। उनमें एक सफ़ेद रेशमी रूमाल था, जिस पर बहुत ही सुन्दर कढ़ाई की हुई थी। मुझे वह रूमाल बहुत पसन्द आया था और उसे मैंने संभाल कर रख लिया था। अब पिताजी के साथ अन्दर जा कर जब मैंने बाबाजी के सम्मुख माथा टेका तो वह रूमाल भी बाबाजी के चरणों में रख दिया। बाबा जी ने मुझ पर और रूमाल पर प्रेमभरी निगाह डाली। उनकी इस प्रेमभरी निगाह में स्वीकार और प्रसन्नता दोनों की झलक थी। उनके महाप्रस्थान के उपरान्त 28 अगस्त 1943 को उनके जल-प्रवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। जिस किश्ती में बाबा जी को प्रवाहित किया जाना था, उसे बहुत सुन्दर ढंग से सजाया गया था। जिस समय सतलुज दरिया पर जा कर बाबा जी के अन्तिम दर्शनों के लिए मैंने उन के श्रीचरणों में माथा टेका तो देखा कि बाबा जी के दायें हाथ के पास वही रूमाल रखा हुआ था। यह देख कर मन भाव-विह्वल हो उठा।