कुत्ता मार्ग: महान बाबा जी महाराज के लिए एक कुत्ते जैसी नम्रता

Humbly request you to share with all you know on the planet!

He used to besmear his forehead with the dust of the feet of that dog Kalu and used to cry from the depths of his heart “Oh my beloved Satguru Lord, accept me as your humble dog”.

He used to besmear his whole body with the holy dust of Baba Ji’s sangat at the Thaath and would joyfully roll in that holy dust reciting hymns in honour and praises of his beloved Master.

पिता जी ने एक कुत्ते जैसी विनम्रता से- अपने प्रिय प्रभु के कुत्ते जैसे एकनिष्ठ प्यार और आस्था से- अविजित पर विजय प्राप्त कर ली थी। यहाँ तक कि कालू नामक कुत्ता भी मेरे पिता जी के लिए आदर व श्रद्धा-भावना का पात्रा था। उसका रंग काला होने के कारण उसको कालू के नाम से पुकारते थे। वह बाबा जी की कुटिया के बाहर ही बैठा करता था। जब बाबा जी बाहर आते तो कालू उनके चरणों पर लेट जाता। वह चरणों से लिपट कर व अपनी पूँछ हिला कर अपने प्रेम व स्वामी भक्ति को प्रकट करता था। बाबा जी बहुत कृपापूर्वक उसका प्रेम स्वीकार करते थे तथा उसके मस्तक पर अपने हाथ में ली छड़ी रख देते थे। पिता जी के विचारों, वचनों, भाषणों, संगत की सेवा, ऐतिहासिक गुरुद्वारों के प्रति आदर तथा दैनिक कार्यों में कुत्ते की अपने स्वामी के प्रति असीमित नम्रता जैसी श्रद्धा-भावना होती थी।

एक बार मेरे पिता जी, भाई साहिब संत सुजान सिंह जी (प्रसिद्ध कीर्तनिए) तथा अन्य श्रद्धालु बाबा जी की कुटिया को प्रणाम करने जा रहे थे। पिता जी ने नित्य की तरह कुटिया के बाहर द्वार पर कालू को बैठे हुए देखा। पिता जी ने बड़े सम्मानपूर्वक कालू को गोदी में उठा लिया तथा उसके पैरों को अपने मस्तक से लगा लिया। कालू के पाँवों की धूल उनके मस्तक पर लग गई। संत सुजान सिंह जी ने मजाक में कहा- “कप्तान साहिब! यह क्या कर रहे हो?” मेरे पिता जी ने अपने नम्र स्वभाव के अनुसार उत्तर दिया:

“भाई साहिब, मैं प्रति दिन अपने स्वामी बाबा नंद सिंह जी महाराज के समक्ष दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि सच्चे पातशाह मुझे अपना कुत्ता बना लो। भाई साहिब यह कालू कितना भाग्यशाली है जो पहले ही इस महान् पदवी का आनंद प्राप्त कर रहा है।”

अगले दिन शाम के समय संत सुजान सिंह जी मेरे पिता जी के पास आए। उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। वह अपने व्यंग्य पर पछता रहे थे, क्योंकि उनको कुछ विचित्रा अनुभव हुआ था। उन्होंने रात को सपने में देखा कि यमराज के दूत एक मृत व्यक्ति को नरक में ले जा रहे थे। अचानक आकाश से कोई वस्तु उस अभागे व्यक्ति की मृत देह पर पड़ गई। यमराज के दूत भयभीत हो गए तथा वहाँ से भाग गए। उनके स्थान पर देवगण उस व्यक्ति को आदर सहित स्वर्ग में ले जाने के लिए पालकी लेकर आ गए।

उन्होंने संत जी को बताया कि एक चील बाबा नंद सिंह जी महाराज के कालू कुत्ते के पाँवों से रोटी का टुकड़ा छीन कर के ले गई थी। आकाश में उड़ते समय यह टुकड़ा नरक को ले जाए जा रहे उस दण्डित व्यक्ति की मृत देह पर गिर पड़ा। इस टुकड़े पर कालू कुत्ते के पाँवों की धूल लगी हुई थी। दण्डित आत्मा एकदम मुक्त हो गई थी। उस को देवगण प्रणाम करने तथा उसे स्वर्ग को ले जाने के लिए आ गए थे।

आँखो में आँसू भरे हुए संत सुजान सिंह जी ने कहा कि वह सुबह से ही कालू को खोज रहे थे, पर वह मिला नहीं। उन्होंने अपने पहले दिन के कथन के लिए सच्चे मन से माफ़ी माँगी। पिता जी ने नम्रता से फिर यही कहा-

“भाई साहिब मुक्ति ताँ बाबा नंद सिंह जी महाराज दे कुत्ते भी बक्श सकदे हन्।” 
“भाई साहब मुक्ति तो बाबा नंद सिंह जी महाराज के कुत्ते भी प्रदान कर सकते हैं।”

महान् बाबा जी देहरादून के जंगलों में डेरा डाले थे। मेरे पिता जी एक बहती धारा में अमृत समय स्नान करने के उपरांत लौट रहे थे। पिता जी के हृदय में तीव्र इच्छा हुई कि वे किसी और के आने से पूर्व बाबा जी के पवित्र दर्शनों का आशीर्वाद प्राप्त करें। फिर पिता जी ने खुद यह अनुभव किया कि यह प्रार्थना संभव एवं व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इसके लिए उन्हें इस स्थान से उस स्थान तक जाने के लिए जहाँ बाबा जी के भक्त ठहरे हुए थे, लम्बा रास्ता तय करना पड़ेगा। जब वे थोड़ी-सी दूर गए थे तो उन्हें यह देख कर अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि उनके प्रेम-देवता बाबा जी बिल्कुल अकेले अँधेरे में चले आ रहे थे। गहन कृतज्ञता और सम्मान के साथ पिता जी महान् बाबा जी के पवित्र चरणों में गिर पड़े और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। जिस क्षण पिता जी ने अपने हृदय में प्रार्थना की थी, उसी क्षण सब हृदयों के ज्ञाता महान् बाबा जी उठ खड़े हुए थे और पिता जी की उत्कट इच्छा की पूर्ति के लिए चल पड़े थे। ज्यों ही पिता जी ने बाबा जी के चरणों से सिर उठाया बाबा जी ने भावपूर्ण कृपा-दृष्टि उन पर डाली और कहा-

“तुम ऐसा ही तो चाहते थे।”

उस समय पिता जी ने बाबा जी के समक्ष अपनी दृढ़ इच्छा व्यक्त की कि वे समस्त सांसारिक चीजों को छोड़कर अपना सम्पूर्ण शेष जीवन बाबा जी की सेवा में अर्पित करना चाहते हैं। बाबा जी ने पिता जी से पूछा कि वे करेंगे क्या? पिता जी ने नम्रतापूर्वक बतलाया कि वे महान् बाबा के लिए कोई असुविधा खड़ी नहीं करेंगे। अपना खाने-पीने आदि का इंतज़ाम खुद करेंगे। वे तो बस उनके भंगी के रूप में उनका कमोड साफ किया करेंगे। पिता जी की उत्कट प्रार्थना इतनी गहन थी कि परम दयालु बाबा जी गंभीर पावन चिंतन करने लगे। एक अन्तराल के बाद उन्होंने पिता जी पर एक और अति अद्भुत और भेदक कृपा-दृष्टि डाली तथा उन्हें आनंद और आशीर्वाद की भावना से भर दिया और कहा-

“डिप्टी, अभी समय आया नहीं है।”

उसके बाद पिता जी प्रतिदिन एक लुब्ध साधक की तरह मानसिक रूप से अपने परम पूज्य बाबा जी का कमोड साफ करने लगे। उन्होंने स्वयं को गर्वपूर्वक बाबा जी का चूहड़ा (भंगी) घोषित कर दिया।

बाबा जी की पवित्र संगत के चरण जहाँ पड़ते थे, वहाँ की धूलि पिता जी अपने शरीर पर मलते थे। इस धूलि में वे इस प्रकार बार-बार लौटते थे जैसे कि गहरे आनंद-सागर में तैर रहे हों। इस पवित्र धूल में स्नान करते हुए उन्हें अत्यधिक उल्लास प्राप्त होता था। उन्होंने स्वयं को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक रूप से महान् बाबा जी के पवित्र चरणों की धूल ही बना लिया था। दुनिया की किसी भी चीज में उनको वह आनंद नहीं मिलता था जो इस पवित्र धूलि में मिलता था। उनकी निजता और अहंकार इस पवित्र धूलि में लीन हो गए थे, अदृश्य हो गए थे। इस पवित्र धूलि से प्राप्त विनम्रता की सुगंध उनके चेहरे पर साफ झलकती, साथ ही उस पर अद्वितीय आनंद और शान्ति होती थी।

गुरु की रेणु नित मजनु करउ॥
जनम जनम की हउमै मलु हरउ॥
माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी कर इसनानु॥
हरि का नामु धिआई सुणि सभणा नो करी दानु॥
जन के चरन बसहि मेरै हीअरै संग पुनीता देही॥
जन की धूरि देहु किरपा निधि नानक के सुखु एही॥
निरमल भए सरीर जब धूरी नाईआ॥
मन तन भए संतोख पूरन प्रभु पाइआ॥

इस प्रकार पिता जी ने बाबा जी की संगत के पवित्र चरणों की धूलि से अपने मन व तन को पवित्र कर लिया था। यह अपने प्रिय सतगुरु के पवित्र चरणों में ‘अहं’ को समाप्त करने का मार्ग है। सतगुरु जी की सेवा व उनके पवित्र चरण-कमलों की पवित्र धूलि में विनम्रता से सेवा करते हुए ‘अहं’ का जड़ से ही नाश हो जाता है। यह अमृत नाम के रस में पिघल कर बह जाता है। यह दैवी प्रेम की अश्रुधारा से धुल जाता है। अहं उस प्रेम व एकाग्रता के मिलन से समाप्त हो जाता है, जिस द्वारे कोई प्रेमी नाम व नामी प्रभु की महिमा का गायन करता है। परमात्मा के दरबार में पहुँचने के लिए विनम्रता सब से मुख्य गुण है।

वह कालू कुत्ते के पाँवों की धूल अपने मस्तक पर मल लेते थे। उन के हृदय से यही पुकार निकलती थी,

“मेरे प्रिय सतगुरु स्वामी जी! मुझे अपने द्वार घर का भाग्यशाली कुत्ता बना लो जी।”

वह ठाठ (कुटिया) में बाबा जी की संगत के पवित्र चरणों की धूलि अपनी देह पर लेपते थे, इस धूलि में स्नान करते तथा प्रिय स्वामी की महिमा में पवित्र ‘शब्दों’ का गायन करते थे। वे कथनी व करनी द्वारा बाबा जी के बहुत ही पक्के सेवक थे। उन्होंने बाबा जी के पवित्र चरणों में शरण ली हुई थी। बाबा जी ने भी अपार कृपा करके अपने सेवक के दिल-मंदिर में अपने चरणों का निवास कर रखा था। पिता जी ने भी बाबा जी के अपने हृदय में निवास करते चरण-कमलों की पवित्रता को बहुत श्रद्धा, नम्रता तथा ध्यान से संभाल कर रखा हुआ था। वह प्रभु-प्रेम से जागृत हृदय में पूर्ण निश्चय से श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की पूजा-अर्चना किया करते थे।

अपने प्रिय मालिक बाबा जी के पवित्र चरणों की पूजा करने की यह एक निराली विधि थी। वह दैवी प्रेम के कारण अपने नेत्रों से प्रवाहित अश्रुधारा द्वारा बाबा जी के चरणों का स्नान करवाते तथा उनके चरणों को पालतू कुत्ते की तरह चाटते रहते थे। मैंने इतिहास में इस प्रकार का कोई उदाहरण नहीं देखा, जब किसी श्रद्धालु ने इतनी विनम्रता तथा मदहोशी के स्तर तक आनन्दित होकर अपने प्रिय स्वामी की पूजा की हो। वह सहस्त्रों, लाखों श्रद्धालुओं के एकत्रित समूह में बोलते हुए अपने आप को प्रिय स्वामी के कुत्तों का कुत्ता कहने में गर्व का अनुभव करते थे।

पूर्ण नम्र भावना से अपने आप को नीच से नीच कहलवाने वालों के भीतर रूहानियत की बाढ़ आ जाती है, श्री गुरु नानक साहिब जी के द्वार व घर में यही नम्रता का मुख्य अर्थ है।

उनके अनोखे व्यक्तित्व का एक निराला पहलू यह था कि वह विनम्रता के अतल सागर के तल तक चले जाते थे, इस प्रकार गुरु की उन पर अनन्त कृपा थी।